देवी सीता जी का जीवन चरित्र - आज की स्त्रियों के लिए सीख | Future Point

देवी सीता जी का जीवन चरित्र - आज की स्त्रियों के लिए सीख

By: Acharya Rekha Kalpdev | 06-Apr-2024
Views : 1609देवी सीता जी का जीवन चरित्र - आज की स्त्रियों के लिए सीख

हिन्दू सनातन धर्म में देवी सीता चारों युगों की सबसे आदर्श और पतिपरायण स्त्री है। राम जी सनातन धर्म का मूल है तो देवी सीता को सनातन धर्म का मजबूत तना है। मूल के बिना तना और तने के बिना मूल अपना महत्त्व खो देते हैं। भगवान् श्री राम की आराध्य, अर्धांगिनी के अतिरिक्त भी देवी सीता का अन्य परिचय है। देवी सीता आज के स्त्री समाज के लिए परम आदर्श है। विवाह से पूर्व, वैवाहिक जीवन में और मातृत्व जीवन में एक स्त्री की भूमिका क्या होनी चाहिए, यह देवी सीता के जीवन से सीखा जा सकता है। कलयुग का हर पुरुष अगर आज राम हो जाए और प्रत्येक स्त्री अगर सीता हो जाए तो इस सृष्टि से स्त्री पुरुष का आपसी विवाद समाप्त हो जाये। सबका वैवाहिक जीवन आनंदमय हो जाए, सुखी हो जाये, सब आनंद के झूले में झूलें।

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सीता जी जयंती / सीता नवमी कब है? पूजा तिथि और शुभ मुहूर्त 2024 

सीता जी की जयंती वर्ष 2024 में 17 मई, शुक्रवार की रहेगी। सीता जी की जयंती को सीता नवमी के नाम से भी जाना जाता है। शुक्रवार, शुभ दिन होने के कारण यह दिन और भी शुभ हो गया है। सीता जी की जयंती के दिन नवमी तिथि का प्रारम्भ  प्रात: काल 08:49 से शुरू हो रही है, और इसका समापन अगले दिन 11:23 प्रात: काल में हो रहा है।

सीता जी जयंती / सीता नवमी पर पूजा करने के लिए शुभ मुहूर्त - सुबह – 10:15 से लेकर 11:49 के मध्य का समय।
अभिजीत मुहूर्त पूजा समय - 11:52 अपराह्न काल (दोपहर) से लेकर 12:58 तक का समय।

राम जी की भार्या होने के अतिरिक्त सीता जी का स्वयं का परिचय क्या है?

वास्तव में सीता जी हमारे में बैठी भक्ति है। सीता जी इस समस्त संसार की भक्ति है। सारी कामनाओं, सारी इच्छाओं में छुपा आनंद है। इच्छाओं को पूर्ण करने वाली देवी है। सीताजी का व्यक्तित्व दुर्लभ है, आत्मज्ञान और अनुसन्धान की शक्ति है। अत्यंत सुन्दर, सर्वकल्याण करने वाली है। सीता जी पवित्र पावन, मनोहारी, सुकोमल, अत्यंत सुन्दर, दुर्लभ है, भक्ति स्वरूपा है, समस्त इच्छाओं की जननी है, सीता का नाम लोकजन में प्रचलित है, जो राम से पहले ही बहुत आदर व सम्मान के साथ लिया जाता है। सीता जी की सुंदरता का निरूपण करते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं -

सुंदरता कहुं सुन्दर करई, छबि गृहं दीपसिखा जनु बरई
सब उपमा कबि रहे जुठारी, केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी

भावार्थ - सीताजी की शोभा, सुंदरता को भी सुन्दर करनेवाली है। वह ऐसी मालूम होती हैं मानो सुन्दरता रुपी घर में दीपक की लौं जल रही हो, सारी उपमाओं को तो कवियों ने झूंठा कर रखा है। मैं जनक नंदनी श्री सीताजी की किससे उपमा दूँ।

बाबा तुलसीदास जी ने मानस में कहा है कि देवी सीताजी का जन्म उस समय हुआ, जब वैदेह के राजा जनक जी ने प्रजा के हित को ध्यान में रखते हुए, वृष्टि की कामना से भूमि में हल चलाया था। हल चलाते हुए, हल की नोंक भूमि में एक घड़े से टकराई। जिसमें से सीता जी प्राप्त हुई। घड़े से प्राप्त उस सुंदर, अतिकोमल कन्या का नाम हल के प्रथम भाग के आधार पर सीता रखा गया। जनक जी के घर कन्या का पालन पोषण हुआ, तो जानकी कहलाई। आत्मज्ञानी पिता मिला, जो देह आसक्ति से मुक्ति थे, इसलिए वैदेही नाम भी मिला। भले ही मनुष्य आत्मज्ञानी हो जाये, भले ही वो राजा हो जाये, पर मुक्ति के लिए उसे कर्म फल का हल चलना ही पड़ता है, कर्मयोग से राजा हो या रंक कोई नहीं बच सकता। मुक्ति के लिए भक्ति आवश्यक है और भक्ति के साथ आनंद का मिलना तय है। सीता और राम दो शब्द नहीं है, तो जीव नहीं, दो आत्मा नहीं है। दोनों एक ही है। इसलिए सीताराम को कभी अलग अलग नहीं लिखा जाता,सदैव एक साथ लिखा जाता है। श्रीरामचरितमानस के शुरू में ही गोस्वामी तुलसीदास जी सीता जी को प्रणाम करते हुए कहते हैं -

जो उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाली हैं, कलेशों का हरण करनेवाली हैं, सब प्रकार से कल्याण करने वाली हैं, श्री रामजी की प्रियतमा हैं, उन सीता जी को मैं नमस्कार करता हूँ

भावार्थ - सीता जी यानि भक्ति। भक्ति ही जीव को परमात्मा से जोड़ने का कार्य करती है, भक्ति ही ईश्वर से जोड़ने का सामर्थ्य रखती है। मन से निराशा दूर कर, कलेशों का नाश करती है, और सब जीवों का कल्याण करती है। ऐसी 'भक्ति' माता सीता जी का मैं हृदय से नमन करता हूँ -

सीय राममय सब जगजानी, करउ परनाम जोरि जुग पानी

हम सब के हृदय मंदिर में देवी सीता अर्थात भक्ति कैसे विराजित हो, हमारे मन में भक्ति का जन्म कैसे हो? हृदय में भक्ति का उदय कैसे हो। इस विषय में बाबा तुलसीदास जी श्री रामचरितमानस में लिखते हैं :-

बिनु बिस्वास भगति नहि, तेहि बिनु द्रवहिं न रामु
राम कृपा बिनु सपनेहुँ, जीव न लेह विश्रामु

अर्थ- बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, भक्ति के बिना श्री राम जी पिघलते नहीं यानि 'राम कृपा' नहीं होती और श्री राम जी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शान्ति नहीं पा सकता।

भावार्थ - ईश्वर प्राप्ति के लिए, राम जी को पाने के लिए विश्वास आवश्यक है, विश्वास के बीज के बिना भक्ति का अंकुरण नहीं होता, भक्ति के बिना राम जी की कृपा पाना संभव नहीं है। और श्री राम जी की कृपा जिन जीवों पर नहीं उन्हें स्वप्न में भी शांति नहीं मिलती। मन की शांति, आनंद की प्राप्ति का आधार राम जी है, राम जी की कृपा का आधार भक्ति है, भक्ति का आधार विश्वास है। विश्वास की डोर पकडे पकडे भक्ति रूपी नदी को पार कर राम जी को पाया जा सकता है। परम आनंद राम जी की कृपा ही है और किसी वस्तु में आनंद नहीं है।

बाबा तुलसीदास जी ने 1511 ईसा वर्ष में बाबा तुलसीदास जी ने श्रीरामचरित मानस में देवी सीता के आदर्श व्यक्तित्व के माध्यम से एक आदर्श स्त्री समाज की स्थापना की। आज के समाज में देवी सीता के आदर्शों की बहुत आवश्यकता है। श्रीरामचरित मानस में यही बात तुलसीदास जी ने कहीं -

सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं।

अर्थ - हे सीते! सुनो, तुम्हारा नाम लेकर ही स्‍त्रियाँ पतिव्रत धर्म का पालन करेंगी।

बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना अंध बधिर क्रोधी अति दीना।।
ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना।।
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा।।

भावार्थ - तुलसीदास जी के शब्दों में देवी सीता पति धर्म के सभी व्रतों का पालन करने वाली स्त्री है। जो पूर्ण रूप से पति से जुडी है। पति वियोग की कल्पना भी उसके लिए संभव नहीं। वह राम जी के बिना प्राणत्यागना पसंद करती है, राम जी से वियोग नहीं। सास-ससुर की आज्ञा का पालन करने वाली, सेवा करने वाली, देवरों को मातृ समान स्नेह करने वाली है। ससुराल और मायका दोनों की मर्यादाओं का पालन करने वाली स्त्री है। कठिन समय में धैर्य और बुद्धि से काम लेती है। इस प्रकार बाबा तुलसीदास जी ने देवी सीता जी के चरित्र में भारतीय सनातन स्त्री के सभी सद्गुणों का समावेश किया है। आधुनिक स्त्रियां अपनी स्वतंत्रता और समानता के दुहाई देकर इन आदर्शों को नारीविरोधी कहकर इनकी आलोचना कराती है। आधुनिक नारियों को कर्तव्यों और दायित्वों दोनों में पुरुषों से समानता की अपेक्षा है।

सीता जी के चरित्र गुण और आज की स्त्रियों के लिए सीख

लज्जा युक्त - सीता जी लज्जा और शर्म की प्रतिमूर्ति है। राम जी से प्रथम दर्शन के समय पुष्प वाटिका में, सीता जी लज्जावश नैन उठाकर राम जी को एक बार देख नहीं पति है। लज्जा के बिना स्त्री अपना गुण खो देती है। स्त्री का सबसे बड़ा आभूषण लज्जा होती है। देवी सीता शर्म लज्जा आभूषण को सदैव धारण किये रहती है। सीता जी का यह गुण आज की स्त्रियों को उनसे सीखना चाहिए।

संस्कारवान - सीताजी संस्कारयुक्त है। माता-पिता के संस्कारों और परम्पराओं का ससुराल में पूर्णता पालन करती है। मायके से लाई शिक्षाओं को अपने पल्लू में बांधकर रखती है। दया, शीलता, विनम्रता, क्षमा और साहसी स्त्री है। रावण जैसे राक्षस से भी वो कभी नहीं डरी। ससुराल के मान का ध्यान रखती है। पति के कार्यों को समपर्ण के साथ करती है। पति और देवर सहित सबके साथ व्यवहारकुशल है। संस्कार भाव से परिपूर्ण है।

संकोच गुण - देवी सीता राम जी से प्रथम दर्शन पर राम जी को मनभर देखना चाहती है,परन्तु शर्म-संकोच से आँखों को नीचा कर लेती है। राम जी को देखने को मन आतुर है, पर संकोच उन्हें रोकता है।

शक्ति का रूप है - देवी सीता शक्ति का ही एक रूप है। इसका प्रमाण देवी सीता द्वारा भगवान् शिव का धनुष उठाने पर होता है। जिस धनुष को बड़े बड़े बली नहीं उठा पाते थे, उस धनुष को देवी सीता एक हाथ से उठाकर अलग रख देती थी।

साहसी और निडर - देवी सीता सुकोमल है, निश्छल है। फिर भी वो लंका में अकेली, असहाय और राक्षसियों के पहरे में होकर भी धैर्य नहीं खोती है। रावण से संवाद करते समय भी देवी सीता में डर का भाव दृष्टिगोचर नहीं होता है। निडरता के साथ वो रावण को ही अपने पति के पराक्रम से डराती है।

सहनशील - वन गमन की सूचना हो, या वनवास का समय, देवी सीता हर समय धैर्य और सहनशीलता के साथ पति का साथ देती है। शिकायतों और मांगों से पति को कष्ट नहीं देती है। अग्नि परीक्षा, गर्भावस्था में त्याग होने पर भी अपना क्रोध प्रकट नहीं करती है। परिस्थितियों को विधि का लिखा मनाकर स्वीकार करती है।

धैर्यवान - वनवास के कष्टों का सीता जी हंस कर सामना करती है। स्वयंवर के समय भी धैर्य के साथ वरमाला लेकर आगे बढ़ती है। मन में व्याकुलता का भाव रहता है परन्तु धैर्य भी साथ में होता है।

विवेक युक्त - देवी सीता जी समय समय पर विवेक का परिचय देती है। रावण द्वारा हरण के समय अपने जाने के मार्ग का संकेत देने के लिए मार्ग में आभूषण छोड़ती जाती है। गर्भावस्था में त्याग पर नदी में कूदने का मन आने पर गर्भ में पल रही संतान का विचार आने पर विवेक से काम लेती है।

वाकपटुता - वनवास के समय रामजी को साथ चलने के लिए अपनी वाकपटुता से मना ही लेती है। पति को साथ वन में साथ ले जाने के लिए तैयार कर लेती है, यह भी उनकी वाकपटुता का उत्कृष्ट उदाहरण है। इसी प्रकार अशोक वाटिका में रावण को अपनी वाकपटुता से चुप करा देती है।

पतिपरायण - देवी सीता जी राम जी का हर परिस्थिति, हर हाल में साथ देती है। उनके लिए आलोचना का एक शब्द नहीं सुन पाती है। अग्नि परीक्षा और गर्भावस्था में परित्याग पर भी पति के विरोध में एक शब्द नहीं बोलती है। अपने पुत्रों को भी राम जी का आदर मान करने के लिए कहती है।

ओजस्वी स्त्री - रावण को अपने ओजपूर्व शब्दों से अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ती है। रावण उनकी और तलवार लेकर मरने दौड़ता है तो एक तिनके से उसे रोक देती है। उनके साहस और ओज की जितनी सराहना की जाये कम है।

धार्मिक व्यवहार - ऋषि मुनियों के साथ सत्संग में बैठना, कथा सुनना उनके चरित्र का अभिन्न अंग है।

पशु पक्षियों से स्नेह - वनवास में कुटिया और कुटिया के आसपास के जीव जंतुओं का सीता जी पूरा ध्यान रखती है।

आदर्श बेटी, आदर्श पत्नी और आदर्श मां - अपने सभी दायित्वों का सीता जी पूर्ण समपर्ण के साथ पालन करती है।

सार - इस प्रकार हम देख सकते है कि भगवान् राम तो सनातन धर्म के पुरुष समाज के परम आदर्श पुरुष है और स्त्रियों के लिए देवी सीता जी परम आदर्श स्त्री है। उनके चरित्र, व्यवहार, गुण, संस्कार से आज की स्त्रियां बहुत कुछ सीख सकती है। आज के नारी जगत के लिए देवी सीता अपने पतिधर्म पालन के लिए कोटि कोटि वंदनीय है। रावण के द्वारा लाख लालच दिए जाने पर भी वो अपने पति धर्म से डिगती नहीं है। सीता जी तेजस्वनी, ओजस्विनी, स्वाभिमानी, धर्मपरायण, गंभीर, धीर, साहसी, निडर, संस्कारयुक्त, शीलवान, गुणवान, धार्मिक और सनातन धर्म की परम आदर्श स्त्री है। उनका जीवन आज की प्रत्येक नारी के लिए अनुकरणीय है आदर्श है। जिनका पालन कर आज कि हर स्त्री देवी सीता जी जैसी दिव्य, और अद्भुत चरित्र की अनुगामिनी बन सकती है।