नवरात्रि के प्रथम दिन माँ शैलपुत्री की पूजा करें इस विधि से, होगी हर मुराद पूरी
By: Future Point | 18-Sep-2022
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माँ दुर्गा जगदम्बा के नौ रूप हैं। माँ जगदम्बा पहले स्वरूप में देवी ‘शैलपुत्री’ के नाम से जानी जाती हैं। ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा। आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से नवरात्र शुरु होते हैं। साथ ही इस दिन कलश स्थापना के बाद मां शैलपुत्री की पूजा-आराधना की जाती है। इस दिन भगत जन साधना कर उनकी विशेष कृपा और आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
देवी शैलपुत्री स्वरुप :-
वृषभ-स्थिता माता शैलपुत्री खड्ग, चक्र, गदा, धनुष, बाण, परिघ, शूल, भुशुण्डी, कपाल और शंख को धारण करने वाली, सम्पूर्ण आभूषणों से विभूषित, नीलमणि के समान कान्ति युक्त, दस मुख और दस चरणवाली हैं। इनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। देवी शैलपुत्री पर्वतराज हिमालय की पुत्री थी। मां शैलपुत्री सफेद वस्त्र धारण किये हुए, इनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में कमल शोभायमान है। मां शैलपुत्री के माथे पर चंद्रमा सुशोभित है। यह बैल पर सवार संपूर्ण हिमालय पर विराजमान हैं। देवी शैलपुत्री को वृषोरूढ़ा व उमा के नामों से भी जाना जाता है। देवी के इस विशिष्ट रूप को करुणा और स्नेह का प्रतीक माना जाता है। घोर तपस्विनी मां शैलपुत्री सभी जीव-जंतुओं की रक्षक मानी जाती है।
''वन्दे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम।
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्।।''
देवी शैलपुत्री की आराधना महत्व :-
महाकाली की आराधना करने से साधक को कुसंस्कारों, दुर्वासनाओं तथा आसुरी वृत्तियों के साथ संग्राम कर उन्हें नष्ट करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है। यह देवी शक्ति, दृढ़ता, आधार व स्थिरता की प्रतीक हैं। इसके अतिरिक्त उपरोक्त मंत्र का नित्य एक माला जाप करने पर सभी मनोरथ सिद्ध होते हें। इस देवी की उपासना जीवन में स्थिरता देती है।
माँ शैलपुत्री अति प्रिय है सफेद मिठाई का भोग -
नवरात्री के पहले दिन माँ शैलपुत्री की पूजा में लगाए जाने वाले भोग का विशेष महत्व है। इसीलिए माता के भक्तों को भोग का ध्यान विशेषतौर से रखना चाहिए। देवी शैलपुत्री को सफेद वस्तु (मिष्ठान) बहुत प्रिय है, इसीलिए नवरात्र के प्रथम दिन की पूजा में मां शैलपुत्री को सफेद वस्त्र व सफेद फल, फूल अवश्य चढ़ाये जाते हैं तथा सफेद रंग की मिठाई का भोग भी लगाया जाता है। मां देवी शैलपुत्री की सच्चे हृदय से पूजा- आराधना करने पर मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। जिन कन्याओं के विवाह होने में बाधा आ रही होती है, माँ की उपासना करने से उन कन्याओं को उत्तम वर की प्राप्ति होती है। शैल का अर्थ होता है पत्थर और पत्थर को दृढ़ता का प्रतीक माना जाता है। इसलिए मां दुर्गा का यह स्वरूप जीवन में स्थिरता और दृढ़ता का प्रतीक है।
पूजा विधि:-
नवरात्रि के प्रथम दिन प्रात:काल उठकर, स्नानादि करके, स्वच्छ कपड़े पहनें। उसके पश्चात एक चौकी पर गणेश जी व देवी दुर्गा की प्रतिमा और कलश को स्थापित करें। फिर देवी शैलपुत्री का ध्यान कर पूजा व्रतादि का संकल्प करें। मां शैलपुत्री को सफेद रंग की वस्तुयें अत्यधिक प्रिय हैं। देवी शैलपुत्री की प्रतिमा पर चंदन-रोली से टीका कर सफेद वस्त्र और सफेद फूल चढ़ाने चाहिए। साथ ही सफेद रंग की मिठाई का भोग मां को लगाना चाहिए। इसके बाद में शैलपुत्री माँ की कथा सुननी चाहिए तथा दुर्गा सप्शती का पाठ व दुर्गा चालीसा का पाठ करना चाहिए। बाद में मां शैलपुत्री की आरती करें और मां से अपने सुखी जीवन का आशीर्वाद मांगे।
मां शैलपुत्री का मंत्र:-
''ॐ देवी शैलपुत्र्यै नमः॥''
''वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥''
माता शैलपुत्री की कथा -
पौराणिक मान्यता के अनुसार राजा दक्ष प्रजापति के आगमन पर वहां स्थित सभी लोग उनका स्वागत करने के लिए खड़े हुए, लेकिन भगवान भोलेनाथ शंकर अपने स्थान से नहीं उठे। यह बात राजा दक्ष को अच्छी नहीं लगी और उन्होंने इसे अपना अपमान समझा। कुछ दिनों के पश्चात् राजा दक्ष ने अपने महल पर एक यज्ञ का आयोजन किया, इस यज्ञ में उन्होंने सभी देवी-देवताओं को निमंत्रण दिया, लेकिन अपने अपमान का बदला लेने के लिए राजा दक्ष ने भोलेनाथ शिव को इस यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया। लेकिन देवी सती ने अपने पिता दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में जाने की इच्छा भोलेनाथ शिव से ज़ाहिर की। सती के जिद्द करने पर भगवान शंकर ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। जब देवी सती यज्ञ में पहुंचीं, तो उनकी मां ने ही उनसे बात की और स्नेह किया। देवी सती की बहनों की बातें व्यंग्य और उपहास के भाव से भरी थी। देवी सती के पिता ने भरे यज्ञ में भोलेनाथ शंकर को बहुत बुरा-भला कहा और अपमानजनक शब्द कहे। अपने पिता दक्ष की बाते सुनकर देवी सती बेहद निराश हुईं और उन्होंने यज्ञ की वेदी में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए। देवी सती का अगला जन्म शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में हुआ, जो शैलपुत्री कहलाईं। इनका विवाह भी भोलेनाथ शिव से हुआ था।