कब और कैसे करें होलिका दहन? जानिए, मुहूर्त, पूजन विधि, नियम व अनुष्ठान | Future Point

कब और कैसे करें होलिका दहन? जानिए, मुहूर्त, पूजन विधि, नियम व अनुष्ठान

By: Future Point | 28-Feb-2020
Views : 5372कब और कैसे करें होलिका दहन? जानिए, मुहूर्त, पूजन विधि, नियम व अनुष्ठान

होलिका दहन को छोटी होली भी कहा जाता है जो फाल्गुन मास की पूर्णिमा को किया जाता है। यह होलाष्टक का आखिरी दिन होता है। होलिका दहन के वक्त सभी लोग आग में आहुति देते हैं। होलिका में नारियल, भुट्टे, कच्चे आम, गेहूं, उड़द, मूंग, चावल , जौ आदि की आहुति दी जाती है। मान्यता है कि इस दिन आग में आहुति देने से व्यक्ति की परेशानियां दूर होती हैं। इस दिन होलिका की परिक्रमा करने की परंपरा भी है। यह वह दिन है जब आप अपनी कोई भी इच्छा पूरी कर सकते हैं। अपनी हर बुराई को आग में खाक कर सकते हैं। इस लेख में जानिए, कौन थी होलिका? जानें इसका पौराणिक और धार्मिक महत्व क्या है? होलिका दहन का मुहूर्त, पूजन विधि, नियम और अनुष्ठान के बारे में....

पौराणिक संदर्भ

धार्मिक ग्रंथों में होलिका दहन की चर्चा अलग-अलग तरह से की गई है। इनमें होलिका की मृत्यु के अलग-अलग कारण बताए गए हैं। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस त्योहार को मनाने की शुरुआत बिहार के पूर्णिया जिले में हुई थी। पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के सिकलीगढ़ में आज भी वह स्थान मौजूद है जहां होलिका भक्त प्रह्लाद को लेकर जली थी। मान्यता है कि इसी स्थान पर होलिका अपने भाई हिरण्यकश्यप के कहने पर भक्त प्रह्लाद को लेकर जलती चिता पर बैठ गई थी। यह भी दावा किया जाता है कि यहीं पर वह खंभा भी मौजूद है जहां भगवान विष्णु नरसिंह अवतार में प्रकट हुए और हिरण्यकश्यप का वध किया। सिकलीगढ़ में हिरण्यकश्यप का किला था। यहीं भक्त प्रह्लाद अपने पिता के साथ रहता था। इस किले में वह माणिक्य खंभा भी मौजूद है जिसे तोड़कर भगवान विष्णु अपने नरसिंह रूप में प्रकट हुए थे। कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने जैसे ही कदम रखा होलिका जलकर खाक हो गई। कुछ अन्य ग्रंथों में यह कथा अलग तरह से दी गई है। माना जाता है कि ब्रह्मा जी ने होलिका को आग में न जलने का वरदान दिया है। लेकिन इसका प्रयोग किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं किया जा सकता था।

इसके अलावा हिरण्यकश्यप का संबंध हरदोई से भी है। पूर्व में हिरण्यकश्यप की नगरी हरदोई थी। कहते हैं कि हिरण्यकश्प हरि यानी ईश्वर का द्रोही अर्थात् नास्तिक था। इसलिए उसने अपनी नगरी का नाम हरदोई रखा था। उसका पुत्र हरि यानी ईश्वर (विष्णु) का भक्त था। पिता को पुत्र की भक्ति रास नहीं आई इसलिए उसने उसे मारने की योजना बनाई औऱ अपनी बहन को भक्त प्रह्लाद को लेकर अग्निकुंड में बैठ जाने के लिए कहा। होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था लेकिन फिर भी वह जल कर भस्म हो गई जबकि भक्त प्रह्लाद को भगवान विष्णु ने बचा लिया। इस तरह होलिका का दहन हुआ और बुराई पर अच्छाई की जीत हुई। इसलिए हर वर्ष इस घटना को याद करते हुए फाल्गुन मास की मूर्णिमा को होलिका दहन किया जाता है।

होलिका दहन 2020: तिथि व मुहूर्त
होलिका दहन मुहूर्त- सायं 6:26 बजे से 8:52 बजे तक (सोमवार, मार्च 9 2020)
अवधि- 2 घंटे 26 मिनट
भद्रा पूँछ- प्रात: 9:37 बजे से 10:38 बजे तक
भद्रा मुख- प्रात: 10:38 बजे से अपराह्न 12:19 बजे तक
पूर्णिमा तिथि प्रारंभ- प्रात: 3:03 बजे (सोमवार, मार्च 9, 2020)
पूर्णिमा तिथ समाप्त- प्रात: 11:17 बजे (सोमवार, मार्च 9, 2020)
रंगवाली होली- मंगलवार, 10 मार्च, 2020

होलिका दहन का महत्व

होलिका दहन की तैयारी एक महीने पहले ही शुरु हो जाती है। लोग होलिका दहन के लिए सूखे पत्ते, लकड़ियां, गाय के गोबर से बने उपले आदि इकट्ठे करने लगते हैं। फिर इन्हें फाल्गुन की पूर्णिमा को अग्नि में जलाया जाता है। शास्त्रों के अनुसार अनाज को संस्कृत में होलका कहते हैं। होलिका या होली होलका शब्द से ही निकला है। होलिका की अग्नि में अनाज के इन दानों को डाला जाता है। इस अनाज से हवन किया जाता है। जब अग्नि में ये जलकर राख हो जाते हैं तो लोग इसे अपने माथे पर लगाते हैं। माना जाता है कि इससे व्यक्ति पर बुरा साया नहीं पड़ता। नकारात्मक शक्तियां उस पर हावी नहीं हो पातीं।

होलिका दहन पूजा

होलिका दहन से पहले विशेष होली पूजा कराई जाती है। यह पूजा सभी नकारात्मक शक्तियों का नाश करने और भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने के लिए की जाती है। विवाहित स्त्रियों के लिए इस पूजा का विशेष महत्व होता है। इस पूजा को कराने से दंपत्ति पर किसी का बुरा साया नहीं पड़ता और उनके वैवाहिक जीवन में खुशियां आती हैं। लेकिन इस पूजा को करते वक्त कुछ विशेष अनुष्ठानों और नियमों का ध्यान रखना पड़ता है। जो भी यह पूजा करता है उसे होलिका के पास उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए। पूजन सामग्री में एक लोटा जल, रोली, चावल, पुष्प, अष्टगंधा, सूत (धागा), धूप, दीप, अगरबत्ती, घी, सूखा नारियल, मिठाई, साबुत हल्दी, गुड़, मूंग दाल, जौ, 5 गाय के गोबर के उपलों से बनी मालाओं की ज़रूरत होती है। यह पूजा संध्या समय में शुभ मुहूर्त में करनी चाहिए। इस दिन भगवान शिव और माता पार्वती की भी पूजा की जाती है। लेकिन इससे पूर्व गणेश जी का ध्यान अवश्य करें।

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होलिका दहन से जुड़े महत्वपूर्ण अनुष्ठान

होलिका दहन से जुड़ी महत्वपूर्ण परंपराएं व अनुष्ठान निम्न हैं:

  • होलिका दहन की तैयारी बसंत पंचमी के समय से ही शुरु हो जाती है। बसंत पंचमी के दिन लकड़ी का एक कुंदा लगाकर होलिका दहन की जगह तय कर ली जाती है। उसके बाद लोग इस पर लकड़ियां, सूखी घास, पत्ते आदि डालकर इसे बड़ा करते रहते हैं।
  • होलिका दहन वाले दिन लकड़ी के इस ढेर पर होलिका और भक्त प्रह्लाद का पुतला बनाया जाता है। होलिका को ज्वलनशील पदार्थों से जबकि भक्त प्रह्लाद को गैर-ज्वलनशील पदार्थों से बनाया जाता है जिससे कि होलिका तो जल जाए लेकिन भक्त प्रह्लाद न जले।
  • उसके बाद शुभ मुहूर्त में होलिका को जलाया जाता है। होलिका को जलाते समय ऋग्वेद के रक्षोग्न मंत्र (Rakshoghna Mantra) का जाप किया जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से भूत-प्रेत दूर रहते हैं और सभी बुरी शक्तियों का नाश होता है।
  • होलिका दहन बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है इसलिए लोग होलिका दहन के वक्त नाचते-गाते हैं और अग्नि की परिक्रमा करते हैं।
  • कुछ लोग होलिका की आग में जौ भी फेंकते हैं और जलाने के बाद उसकी राख को अपने घर ले जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि इससे सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
  • उत्तर भारत के कई क्षेत्रों में विवाहित स्त्रियां होलिका दहन से पूर्व पूरे दिन व्रत रखती हैं। शाम को होली पूजा और होलिका दहन के बाद ही यह व्रत को खोला जाता है।

होलिका दहन का शास्त्रों के अनुसार नियम

फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा के दिन तक होलाष्टक होता है। इस दौरान कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता। होलाष्टिक के आखिरी दिन यानी पूर्णिमा को होलिका दहन किया जाता है। शास्त्रों में इसके लिए दो विशेष नियम बताए गए हैं:

  • पहला, उस दिन भद्रा न हो। भद्रा विष्टीकरण का ही एक रूप है जो 11 करणों में से एक है। शास्त्रों के अनुसार एक करण तिथि के आधे भाग के बराबर होता है।
  • दूसरा, प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा तिथि हेलिका दहन के लिए उत्तम होती है। आसान भाषा में कहें तो उस दिन सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्तों में पूर्णिमा तिथि होनी चाहिए।

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