देवी के नौ रूप - नवदुर्गा | Future Point

देवी के नौ रूप - नवदुर्गा

By: Future Point | 06-Apr-2019
Views : 9194देवी के नौ रूप - नवदुर्गा

शक्ति पूजा के महान् पर्व नवरात्रि महोत्सव को एक प्रकार का विजयोत्सव माना गया है। जो देवी के द्वारा राक्षसों को मारकर उन पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। हैं। शक्ति का अर्थ है ऊर्जा और देवी शक्ति का अर्थ है अनदेखी ऊर्जा का मूल स्रोत जो इस रचना को बनाए रखता है। नवरात्रि के पावन अवसर पर नवदुर्गा के नौ स्वरूपों की नौ अलग-अलग दिन विशेष पूजा की जाती है। देवी के नौ रूप नौ विभिन्न गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। देवी के नौ रूपों में शक्ति, परिवर्तन, क्रोध, सौंदर्य, करुणा, भय, और शक्ति जैसे गुणों को शामिल किया गया है। ये गुण प्रत्येक व्यक्ति में, विभिन्न घटनाओं में और इस ब्रह्मांड में समग्र रूप से परिलक्षित होते

1.शैलपुत्री 2. ब्रह्मचारिणी 3. चन्द्रघण्टा 4. कूष्माण्डा 5. स्कन्दमाता 6. कात्यायनी 7. कालरात्रि 8. महागौरी 9. सिद्धिदात्री आदि देवियों को पूजनीय माना गया है।

नवरात्रि में प्रथम शैलपुत्री व महाकाली का पूजन

आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन घटस्थापना करके विधि-विधान से पूजा की जाती है। नवरात्रि के पहले दिन मातृशक्ति की उपासना महाकाली व शैलपुत्री की पूजा की जाती है। इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को ‘मूलाधार” चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनक योग साधना का प्रारम्भ होता है।

पहली दुर्गा शैलपुत्री हैं। ये पर्वतों के राजा हिमवान् की पुत्री तथा नौ दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। ये पूर्वजन्म में प्रजापति दक्ष की कन्या सती अर्थात् भगवान् शिव की पत्नी थी। जब प्रजापति दक्ष ने बहुत बड़ा यज्ञ किया, तब इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ भाग प्राप्त करने के लिए निमन्त्रित किया। किन्तु उन्होंने शिवजी को यज्ञ में नहीं बुलाया। सती ने जब सुना कि हमारे पिता एक अत्यन्त विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहां जाने के लिये उनका मन विकल हो उठा। शिवजी को अपनी बात बताने पर उन्होंने कहा ,‘प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे नाराज हैं। उन्होंने हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया और न ही सूचना भेजी। शिवजी ने कहा-ऐसी स्थिति में तुम्हारा जाना अच्छा नहीं है। अत्याग्रह पूर्वक सती अपने पिता के घर पहुंची तो प्रजापति दक्ष ने शिव का अपमान भी किया।

यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतृप्त हो उठा। उन्होंने सोचा-मैंने अपने पति शिवजी की बात नहीं मानकर बड़ी गलती की है। वह अपने पति के अपमान को सहन न कर सती ने अपने माता एवं पिता की उपेक्षा कर योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को जलाकर भस्म कर दिया। भगवान् शिव ने इस घटना को सुनकर क्रुद्ध होकर अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस कर दिया। फिर जन्मान्तर में पर्वतों के राजा हिमवान् की पुत्री पार्वती ‘‘हेमवती’ बनकर पुनः शिव की अर्धांगिनी बनी।

प्रसिद्ध उपनिषद् कथानुसार जब इन्हीं भगवती हैमवती ने इन्द्रादि देवों का वृत्रवधजन्य अभिमान खण्डित कर दिया, तब वे लज्जित हो गये। उन्होंने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की और स्पष्ट कहा कि वस्तुतः आप ही शक्ति हैं, आपसे ही शक्ति प्राप्त कर हम सब ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव भी शक्तिशाली हैं। आपकी जय हो, जय हो।

विष्णु भगवान् की योगनिद्रा की स्थिति में ब्रह्माजी ने जिनकी स्तुति की थी। उन खड्ग, चक्र, गदा, धनुष, बाण, परिघ, शूल, भुशुण्डी, कपाल और शंख को धारण करने वाली, सम्पूर्ण आभूषणों से विभूषित, नीलमणि के समान कान्ति युक्त, दस मुख और दस चरणवाली महाकाली का ध्यान करने से वह हमारे कुसंस्कारों, हमारी दुर्वासनाओं तथा आसुरी वृत्तियों के साथ संग्राम कर उन्हें कष्ट कर डालने की प्रथम स्थिति की ही द्योतक है।

श्री देवी का सिद्ध मंत्र ‘‘ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” की नवरात्रि में नित्य एक माला फेरने पर आपके सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं और श्री भगवती की कृपा से अचला भक्ति और परम शान्ति की प्राप्ति होती है।

Also Read: नवरात्रि के प्रथम दिवस - माँ शैलपुत्री की कथा एवं पूजा विधि ।

नवरात्रि में दूसरे दिन देवी ब्रह्मचारिणी का पूजन

शास्त्रों के अनुसार नवरात्रि के दूसरे दिन मातृशक्ति देवी ‘‘ब्रह्मचारिणी’का पूजन किया जाता है। इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित होता है। इस चक्र में अवस्थित मनवाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है। भगवती दुर्गा शिवस्वरूपा हैं, गणेशजननी हैं। ये नारायणी, विष्णु माया और पूर्ण ब्रह्मस्वरूपिणी नाम से प्रसिद्ध हैं। ब्रह्म चारयितुं शीलं यस्याः सा ब्रह्मचारिणी सच्चिदानन्द ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति कराना जिनका स्वभाव हो, वे ‘ब्रह्मचारिणी हैं। ब्रह्म अर्थात् तप की चारिणी आचरण करने वाली हैं। यहां ब्रह्म शब्द का अर्थ ‘तप है। ‘वेदस्तत्त्वं तपो ब्रह्म इस कोष वचन के अनुसार वेद, तत्त्व एवं तप ‘ब्रह्म शब्द के अर्थ हैं। ये देवी ज्योतिर्मयी भव्य मूर्ति हैं। इनके दाहिने हाथ में जप की माला और बायें हाथ में कमण्डल है तथा ये आनन्द से परिपूर्ण है।

इनके विषय में यह कथानक प्रसिद्ध है कि ये पूर्वजन्म में हिमवान् की पुत्री पार्वती हैमवती थी। एक बार अपनी सखियों के साथ क्रीडा में रत थी। उस समय इधर-उधर घूमते हुए नारदजी वहां पहुंचे और इनकी हस्तरेखाओं को देखकर बोले- तुम्हारा तो विवाह उसी नंग-धड़ंग भोले बाबा से होगा। जिनके साथ पूर्वजन्म में भी तुम दक्ष की कन्या सती के रूप में थी, किन्तु इसके लिये तुम्हें तपस्या करनी पड़ेगी। नारदजी के चले जाने के बाद पार्वती ने अपनी माता मेनका से कहा कि - यदि मैं विवाह करुंगी तो भोलेबाबा शम्भु से ही करुंगी, अन्यथा कुमारी ही रहंुगी। इतना कहकर पार्वती तप करने लगी। इसीलिये इनका तपारिणी ‘ब्रह्मचारिणी” यह नाम प्रसिद्ध हो गया।

एक हजार वर्ष तक उन्होंने केवल फल-मूल खाकर व्यतीत किये थे। सौ वर्ष तक केवल शाक पर निर्वाह किया था। कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखते हुए खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के भयानक कष्ट सहे। इस कठिन तपस्या के पश्चात् तीन हजार वर्षों तक केवल जमीन पर टूटकर गिरे हुए बेलपत्रों को खाकर वह अहर्निश भगवान् शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद उन्होंने सूखे बेलपत्रों को भी खाना छोड़ दिया। कई हजार वर्षों तक वह निर्जल और निराहार तपस्या करती रहीं। पत्तों को भी खाना छोड़ देने के कारण उनका एक नाम ‘अपर्णा’भी पड़ गया।

कई हजार वर्षों तक इस कठिन तपस्या के कारण ब्रह्मचारिणी देवी का वह पूर्वजन्म का शरीर एकदम क्षीण हो उठा। वह अत्यन्त ही कृशकाय हो गयीं थी। उनकी यह दशा देखकर माता मेनका अत्यन्त दुःखी हो उठी।

उनकी तपस्या से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ब्रह्मचारिणी देवी की इस तपस्या को अभूतपूर्व पुण्यकृत बताते हुए उनकी सराहना करने लगे। अन्त में पितामह ब्रह्माजी ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें सम्बोधित करते हुए प्रसन्न स्वरों में कहा- ‘हे देवि! आज तक किसी ने ऐसी कठारे तपस्या नहीं की थी। ऐसी तपस्या तुम्हीं से सम्भव थी। तुम्हारे इस अलौकिक कृत्य की चतुर्दिक् सराहना हो रही है। तुम्हारी मनोकामना सर्वतोभावेन परिपूर्ण होगी। भगवान् चन्द्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तुम तपस्या से विरत होकर घर लौट जाओ। शीघ्र ही तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं।

सभी देवता इनकी पूजा करते हैं। ये भगवान शंकर की परम प्रेयसी हैं। इनका लीला-चरित्र अति पावन है। देवताओं से देवी ने कहा- मुझसे ही प्रकृति-पुरुषात्मक जगत् उत्पन्न होता है, मैं ही स्थिति और संहार करने वाली, महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति और महामोहस्वरूपा हूं, तथा दारुण कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी मैं ही हूं। देवी ने ही जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय करने वाले साक्षात् भगवान् विष्णु को भी योगनिद्रा के वशीभूत कर दिया है और विष्णु, शंकर एवं ब्रह्मा देवी के द्वारा ही शरीर ग्रहण करने को बाधित किये गये हैं। देवी ने अपने प्रभाव से ही इन असुरों को मोहित करके मारने के लिये भगवान् को जगाया है।

यही निर्गुण स्वरूपा देवी जीवों पर दया करक स्वयं ही सगुण-भाव को प्राप्त होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश रूप से उत्पत्ति, पालन और संहार कार्य करती है। मां दुर्गाजी का यह दूसरा स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनन्त फल देने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है। जीवन के कठिन संघर्षों में भी उसका मन कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता है। हम देवी से अपनी मलिनता, दुर्गुणों और दोषों को नष्ट करने की प्रार्थना करते हैं। इस पर देवी हमारे भीतर आसुरी वृत्तिरूप जो असुरगण हैं, उनसे संग्राम कर उन्हें समूल नष्ट कर डालती हैं और हमें भयंकर अंधकूपों और आपत्तियों से बचाती हैं। मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है।

Also Read: नवरात्रि का दूसरा दिवस - माँ ब्रह्मचारिणी की कथा एवं पूजा विधि ।

नवरात्रि में तीसरे दिन देवी चन्द्रघण्टा का पूजन

नवरात्रि के तीसरे दिन दुर्गा माता का तीसरा स्वरूप चन्द्रघण्टा देवी की पूजा की जाती है। इनका यह स्वरूप परम शान्तिदायक और कल्याणकारी है। इस दिन साधक का मन ‘मणिपुर चक्र में प्रविष्ट होता है। मां चन्द्रघण्टा की कृपा से अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगन्धियों का अनुभव होता है तथा विविध प्रकार की दिव्य ध्वनियां सुनायी देती हैं। ये क्षण साधक के लिये अत्यन्त सावधान रहने के होते हैं। चन्द्रः घण्टायां यस्याः सा- आहलादकारी चन्द्रमा जो घण्टा में स्थित हों, उन देवी का नाम ‘चन्द्रघण्टा है।

इस देवी के मस्तक में घण्टा के आकार का अर्धचन्द्र है। ये लावण्यमयी दिव्यमूर्ति हैं। सुवर्ण के सदृश इनके शरीर का रंग है। ये सिंह पर आरूढ़ हैं तथा लड़ने के लिये युद्ध में जाने को उन्मुख हैं। ये वीररस की अपूर्व मुर्ति हैं। देवी के तीन नेत्र और दस हाथ हैं। इनके कर-कमलों में गदा, धनुष-बाण, खड्ग, त्रिशूल और अस्त्र-शस्त्र लिये, अग्नि जैसे वर्ण वाली, ज्ञान से जगमगाने वाली, दीप्तिमती, कर्मफल प्राप्ति हेतु सेवन की जाने वाली सुशोभित देवी की पूजा करने से बड़ों-बड़ों को अपने कर्तव्य में प्रवृत्त कर सकते हैं। इनके चण्ड भयंकर घण्टे की ध्वनि से सभी दुष्ट दैत्य-दानव एवं राक्षस के शरीर का नाश करना, भक्तों को अभयदान देना और देवताओं का कल्याण करना यही उनके शस्त्र धारण करने का उद्देश्य है। महान् रौद्र रूप, अत्यन्त घोर पराक्रम, महान् बल और महान् उत्साह वाली देवी महान भय का नाश करती है।

मां चन्द्रघण्टा की कृपा से साधक के समस्त पाप और बाधाएं विनष्ट हो जाती हैं। इनकी आराधना सदैव फलदायी है। इनकी मुद्रा सदैव युद्ध के लिए अभिमुख रहने की होती है। जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो, शत्रुओं के भय से पीड़ित हो, विषम संकट में फंस गया हो तो देवी की शरण में जाने पर उनका कभी कोई अमंगल नहीं होता और उनके ऊपर आयी हुई विपत्ति भी दूर हो जाती है और उन्हें शोक, दुःख और भय की प्राप्ति नहीं होती है। भक्तिपूर्वक देवी का स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय व कष्ट हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम् कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं और उसको निश्चय ही वांछित फलों की प्राप्ति होगी।

इसका उपासक सिंह की तरह पराक्रमी और निर्भयता के साथ ही सौम्यता एवं विनम्रता का भी विकास होता है। उसके मुख, नेत्र तथा सम्पूर्ण काया में कान्ति-गुण की वृद्धि होती है। स्वर में दिव्य, अलौकिक माधुर्य का समावेश हो जाता है। देवी के घण्टे की ध्वनि सदा अपने भक्तों की प्रेत-बाधादि से रक्षा करती रहती है। इनका ध्यान करते ही शरणागत की रक्षा के लिये इस घण्टे की ध्वनि निनादित हो उठती है। हमारे इहलोक और परमलोक दोनों के लिये देवी का ध्यान परमकल्याणकारी और सद्गति को देने वाला है।

Also Read: नवरात्रि का तीसरा दिवस - माँ चंद्रघण्टा के स्वरूप् का महत्व एवं पूजा विधि ।

नवरात्रि में चौथे दिन देवी कुष्माण्डा का पूजन

शास्त्रों के अनुसार चतुर्थी माता दुर्गा का स्वरूप ‘‘कूष्माण्डा देवी और ‘‘श्रीमहालक्ष्मी के रूप में पूजन किया जाता है। इस दिन साधक का मन अनाहृत चक्र में अवस्थित होता है। अतः इस दिन उसे अत्यन्त पवित्र और अचंचल मन से कूष्माण्डा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा-उपासना के कार्य में लगाना चाहिये। त्रिविध ताप युक्त संसार जिनके उदर में स्थित हैं, वे भवगती ‘कूष्माण्डा कहलाती है।

मां कूष्माण्डा की उपासना मनुष्य को आधियों-व्याधियों से सर्वथा विमुक्त करके उसे सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाने वाली है। इससे भक्तों के समस्त रोग-शोक विनष्ट हो जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है और परम पद की प्राप्ति हो सकती है। यह देवी महाभय का नाश करने वाली, महांसकट को शान्त करने वाली और महान् करुणा की साक्षात् मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करती हूँ।।

Also Read: नवरात्रि का चौथा दिवस - देवी कुष्मांडा के स्वरूप् का महत्व एवं पूजा विधि ।

नवरात्रि में पांचवे दिन देवी स्कन्दमाता का पूजन

शास्त्रों के अनुसार माता दुर्गा का स्वरूप ‘‘स्कन्द माता’’ के रूप में नवरात्रि के पांचवें दिन पूजा की जाती है। शैलपुत्री ने ब्रह्मचारिणी बनकर तपस्या करने के बाद भगवान शिव से विवाह किया। तदनन्तर स्कन्द उनके पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। ये भगवान् स्कन्द कुमार कार्तिकेय के नाम से भी जाने जाते हैं। स्कन्द शब्द से अभिप्राय: स्कंद हमारे जीवन में ज्ञान और (धर्मी) कार्रवाई के एक साथ आने का प्रतीक है।

हम अक्सर कहते हैं कि ब्रह्म हर जगह प्रकट होता है और सर्वव्यापी है, लेकिन वर्तमान में जब आपके पास अपने जीवन से निपटने के लिए एक कठिन स्थिति है, तो आप क्या करते हैं? फिर आप किस ज्ञान का उपयोग करेंगे? समस्या को हल करने के लिए आपको कार्य करने की आवश्यकता है, अपने ज्ञान को कार्य में लगाने की आवश्यकता है। इसलिए जब आप ज्ञान द्वारा निर्देशित कार्रवाई करते हैं, तो यह स्कंद तत्व है जो प्रकट होता है। और देवी दुर्गा को स्कंद तत्व की माता माना जाता है।

Also Read: नवरात्रि का पांचवा दिवस – माँ स्कंदमाता की कथा एवं पूजा विधि ।

नवरात्रि में छठे दिन देवी कात्यायनी का पूजन

शास्त्रों के अनुसार नवरात्रि के छठे दिन माता दुर्गा के छठे रूप में ‘‘कात्यायनी देवी’’ की पूजा की जाती है। उस दिन साधक का मन आज्ञाचक्र में स्थित होता है। कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे। ‘कत’ का पुत्र ‘कात्य’ है। इस कात्य के गोत्र में पैदा होने वाले ऋषि कात्यायन हुए। इन कात्यायन ऋषि ने इस धारणा से भगवती पराम्बा की तपस्या की कि आप मेरे घर में पुत्री रूप में जन्म लें। कात्यायनि देवी ने देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये और भगवती ऋषि की भावना की पूर्णता के लिये देवी महर्षि कात्यायन के आश्रम पर प्रकट हुई और महर्षि ने उन्हें अपनी कन्या माना। इसलिये उसे देवी की ‘‘कात्यायनी” के नाम से उनकी प्रसिद्धि हुई। इससे इनका नाम ‘कात्यायनी’ पड़ा।

माँ दिव्य का छठा रूप कात्यायनी है। हमारे सामने जो कुछ भी घटित होता है और सामने आता है, जिसे प्रपंच कहते हैं, वह केवल दिखाई देने तक सीमित नहीं है। वह जो अदृश्य है और जिसे इंद्रियों द्वारा अनुभव नहीं किया जा सकता है। वह उससे भी कहीं अधिक है जितना हम कल्पना कर सकते हैं और समझ भी सकते हैं। सूक्ष्म दुनिया जो अदृश्य और अव्यक्त है, उस सभी पर दिव्य मातृ-कात्यायनी का अधिकार क्षेत्र है। कात्यायनी दिव्यता के गहरे और सबसे जटिल रहस्यों का प्रतिनिधित्व करती है।

Also Read: नवरात्रि के छठे दिवस - माँ कात्यायनी की कथा एवं पूजा विधि।

नवरात्रि में सातवें दिन देवी सरस्वती व कालरात्रि का पूजन

सम्पूर्ण प्राणियों की पीड़ा हरने वाली, सब में व्याप्त रहने वाली, अग्नि भय, जल भय, जन्तु भय, रात्रि भय दूर करने वाली, काम, क्रोध और शत्रुओं का नाश करने वाली, ग्रह बाधाओं को नष्ट करने वाली, सबको मारने वाली काल की भी रात्रि विनाशिका होने से उस देवी का नाम ‘‘कालरात्रि’पड़ा। नवरात्र के सप्तम दिन कालरात्रि देवी का व्रत, दर्शन-पूजन किया जाता है। नवदुर्गाओं में से सप्तम देवी कालरात्रि है। कालरात्रि से अभिप्राय: काल अर्थात काल रात्रि। कालरात्रि के रूप में देवी के रूप की व्याख्या कुछ इस प्रकार की गयी है। देवी काली इस रूप में बाल बिखरे हुए होते है।

देवी के स्वास से अग्नि रूपी ज्वालायें निकलती है। मां का यह रूप बहुत भयानक है और दुर्जनों का नाश करने के लिए ही मां ने यह स्वरूप धारण किया है। मां काली की इस रूप में चतुर्थ भुजा हैं, जिसमें एक हाथ से मां वरदान देती है, एक से मां अभय मुद्रा में है, मां के एक हाथ में खडग और एक में तलवार है। यहाँ देवी गर्दभ की सवारी कर रही है।

Also Read: नवरात्रि का सातवां दिवस – माँ कालरात्रि की कथा एवं पूजा विधि ।

नवरात्रि में आठवें दिन देवी महागौरी का पूजन

माँ दैवी के आठवें रूप को महागौरी कहा जाता है। महागौरी का अर्थ है वह रूप जो सुंदर और दिव्यमान है। अगर हम ध्यान से देखे तो पाते है की प्रकृति के दो चरम रूप हैं। रूपों में से एक कालरात्रि है जो सबसे अधिक भयानक और विनाशकारी है, और दूसरी ओर हम महागौरी को देखते हैं जो कि मातृ देवी का सबसे सुंदर और निर्मल रूप है। महागौरी सुंदरता के प्रतीक का प्रतिनिधित्व करती हैं। महागौरी हम सभी की इच्छाओं को पूरा करती हैं। देवी महागौरी हम सभी को आशीर्वाद और वरदान देती हैं कि हम भौतिक लाभ की तलाश करें, ताकि हम भीतर से संतुष्ट रहें और जीवन में आगे बढ़ें।

नारद पांचरात्र के अनुसार शम्भु की प्राप्ति के लिये हिमालय में तपस्या करते समय गौरी का शरीर धूल-मिट्टी से ढँककर मलिन हो गया था। इनकी तपस्या से प्रसन्न और संतुष्ट होकर शिवजी ने गंगा जल से मलकर उसे धोया, तब महागौरी का शरीर विद्युत के सदृश कान्तिमान् हो गया। इन्होंने अपनी तपस्या द्वारा महान् गौरवर्ण प्राप्त किया था, इसलिये वे विश्व में ‘महागौरी नाम से प्रसिद्ध हुई।

Also Read: नवरात्री का आठवां दिवस – माँ महागौरी के स्वरूप् का महत्व एवं पूजा विधि ।

नवरात्रि में नौवें दिन देवी सिद्धिदात्री का पूजन

शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। सिद्धावस्था में वे अग्नि से रहित होती हैं। ममता मोह से विरक्त होकर महर्षि मेधा के उपदेश से समाधि ने देवी की आराधना कर, ज्ञान प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त की थी। सिद्धा अर्थात् मोक्ष को देने वाली होने से उस देवी का नाम ‘‘सिद्धिदात्री’’ पड़ा।

माँ देवी का सिद्धिदात्री रूप हम सभी को अनेकोंअनेक सिद्धियों (असाधारण क्षमताओं) के साथ आशीर्वाद देता है ताकि हम पूर्णता के साथ सब कुछ करें। सिद्धि का अर्थ है कि प्रत्येक वह वस्तु जो मात्र कामना करने से ही प्राप्त हो जाती है। इसके लिए केवल विचार की आवश्यकता होती है। किसी भी तरह का कार्य करने की आवश्यकता नहीं होती है। बिना संघर्ष के मात्र प्रयास से उद्देश्य सफल होने का अर्थ ही सिद्धि है। सिद्धि व्यक्तिविशेष के लिए ना होकर समाज के लाभ के लिए होती है। सिद्धिदात्री के इस रूप में देवी जीवन के हर क्षेत्र में पूर्णता और समग्रता लाती है। यही देवी सिद्धिदात्री का महत्व है।

Also Read: नवरात्री का नौंवा दिवस - माँ सिद्धिदात्री के स्वरूप् की कथा, महत्व एवं पूजा विधि ।