शीतला अष्टमी पर्व 2024 कब? शीतला अष्टमी पर्व कथा
By: Acharya Rekha Kalpdev | 11-Mar-2024
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शीतला अष्टमी 2024: शीतला अष्टमी का पर्व चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन मनाया जाता है। शीतला अष्टमी तिथि देवी पूजन का दिन है। यह हिन्दुओं का एक विशेष पर्व है। शीतला अष्टमी के दिन माता शीतला का पूजन किया जाता है। शीतला अष्टमी के दिन सारे दिन का व्रत करने की परंपरा है। साथ ही इस दिन रसाईघर में किसी भी प्रकार का भोजन पकाना वर्जित है। शीतला अष्टमी के दिन पूर्व रात्रि में ही भोजन / भोग बनाकर रख दिया जाता है। इसे ही अगले दिन भोग के रूप में प्रयोग किया जाता है। शीतला अष्टमी के दिन बासी भोजन ग्रहण किया जाता है।
शीतला माता देवी भगवती का ही रूप है। देवी भगवती के इस स्वरुप की पूजा के विशेष प्रावधान है। यह दिन विशेष रूप से माताओं को समर्पित है। माताएं इस दिन अपनी संतान के जीवन और आरोग्यता की कामना के लिए व्रत कर देवी शीतला माता का पूजन करती है। देवी शीतला को लेकर आज हमारे समाज में अनेक प्रकार की मान्यताएं और विचार प्रचलन में है। संतान को रोगमुक्त रखने के लिए यह व्रत किया जाता है। इस व्रत से जुडी एक मान्यता के अनुसार जिस घर में या कॉलोनी में किसी बालक को चेचक रोग होता है। उस कॉलोनी में शीतला अष्टमी पर्व नहीं मनाया जाता है। शीतला अष्टमी को बसोड़ा के नाम से भी जाना जाता है।
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शीतला अष्टमी का महत्त्व
शीतला अष्टमी का पर्व होली के बाद आठवें दिन मनाया जाता है। इस वर्ष यह पर्व 2 अप्रैल, 2024, मंगलवार के दिन मनाई जायेगी। शीतला अष्टमी के दिन देवी शीतला को ठंडा भोजन अर्पित किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि देवी को ठंडा भोजन पसंद है। देवी के आशीर्वाद से चेचक जैसे रोगों पर रोकथाम लगती है।
इस पर्व के एक दिन पहले घर की महिलायें, विशेष रूप से माताएं, शीतला अष्टमी का प्रसाद बनाती है। अगले दिन अर्थात शीतला अष्टमी के दिन इस प्रसाद का भोग देवी को लगाया जाता है। उसके बाद इस प्रसाद को परिवार के सभी लोग मिलकर ग्रहण करते है। शीतला अष्टमी तिथि के दिन रसोईघर में अग्नि का प्रयोग वर्जित होता है। शीतला अष्टमी का पर्व होली के आसपास (8वें दिन) आता है। यह समय मौसम में बदलाव का समय होता है। ऋतुसंधि के समय में रोग जल्दी अपने प्रभाव में लेते है। यह समय मौसमी रोगों के सक्रिय होने का समय होता है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार देवी शीतला को ठंडा भोजन ही पसंद होता है। देवी शीतला को इसी वजह से बासी भोजन का भोग लगाया जाता है। वैसे तो बासी भोजन का सेवन स्वास्थ्य के पक्ष से बहुत अच्छा नहीं समझा जाता है। परन्तु इस एक दिन सभी बासी भोजन ही ग्रहण करते है। इस तिथि के बाद मौसम में गर्मी तेजी के साथ बढ़ने लगी है। तापमान बढ़ने से भोजन जल्द ख़राब होने लगता है। इसलिए बासी भोजन करने के लिए यह एक मात्र दिन उपयुक्त रहता है। अन्य किसी दिन बासी भोजन करने से स्वास्थ्य में कमी संभावित है। शीतला माता खसरा, चेचक जैसे रोगों की देवी है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शीतला माता की पूजा करने से इस प्रकार के रोग जल्द प्रभावित नहीं करते है।
माता शीतला देवी भगवती जी का ही रूप है। शीतला देवी के स्वरुप में देवी का वाहन गधा है। उनके एक हाथ में झाड़ू, एक में कलश, एक हाथ में सूप और एक हाथ ने नीम की पत्तियां पकडे हुए है। उनके कलश में दाल के दानों के रूप में रोगनाशक जल है। माता के इस स्वरुप का गूढ़ अर्थ- देवी शीतला रोगों पर रोकथाम करने वाली देवी है। कलश में हिन्दुओं के सभी देवी देवता विराजमान है। देवी शीतला का पूजन करने से सभी रोगों पर रोक लगती है। देवी शीतला का वर्णन पुराण में भी मिलता है। पुराणों में शीतला अष्टमी पर्व का शीतलाष्टक के नाम से वर्णन मिलता है। स्कन्द पुराण में शीतला अष्टमी पर्व का माहात्म्य कहा गया है। इस पर्व पर शीतला देवी की महिमा गई जाती है। पर्व पर देवी को प्रसन्न करने के लिए शीतलाष्टक का पाठ करना चाहिए।
शीतला अष्टमी पर्व कथा
शीतला अष्टमी पर्व को लेकर एक कथा प्रचलन में है। कथा के अनुसार एक गाँव में एक कुम्हारन रहती थी। कुम्हारन लम्बे समय से ही शीतला अष्टमी के दिन शीतला देवी के लिए व्रत और दर्शन पूजन करती थी। शीतला अष्टमी तिथि को बासोड़ा बनाकर देवी को बसोड़ा का भोग लगाती थी। कुम्हारन शीतला अष्टमी तिथि के दिन एक दिन पहले ही व्रत के भोग के रूप में खाना बनाकर रख देती थी। इस भोजन को भोग के रूप में अगले दिन प्रयोग करती थी। कुम्हारन के गाँव में अन्य कोई देवी शीतला अष्टमी का न तो व्रत करता था और न ही उनका दर्शन पूजन करता था।
एक बार उस गाँव में एक बुढ़िया आई। संयोग से उस दिन शीतला अष्टमी का दिन था। वह बुढ़िया गाँव के प्रत्येक घर में सहायता के लिए गई। सभी ने किसी न किसी काम में व्यक्त होने का बहाना बनाकर बुढ़िया को बिना मदद के वापस लौटा दिया। किसी ने उसकी सहायता नहीं करी। अंत में बुढ़िया कुम्हारन के पास गई। कुम्हारन उस दिन शीतला माता के लिए व्रत से थी। उस दिन कुम्हारन ने देवी की पूर्ण श्रध्दा और विश्वास के साथ पूजा की थी। साथ ही उसने भोजन भी एक रात्रि पूर्व में ही बना लिया था। बासी भोजन का ही उसने देवी को सुबह भोग लगाया था। इस कारण वह खाली थी। कुम्हारन ने द्वार पर आई बुढ़िया माता की सहायता की, उसे भोजन और पानी दिया। बुढ़िया बहुत प्रसन्न हुई और अपने वास्तविक दर्शन दिए। बुढ़िया वास्तव में देवी शीतला थी, जो कुम्हारन की परीक्षा लेने उनके घर आई थी।
बुढ़िया के जाने के कुछ समय बाद उस गांव में आग लग गई। जिसकी आग में गांव के सारे घर जल गए, परन्तु कुम्हारन के घर को आग छु भी न पाई। सारे गाँव के घर जलकर रख हो गए, बस कुम्हारन का घर बचा। इस पर गाँव वालों ने बुढ़िया से पूछा कि हम सब के घर जल गए परन्तु तुम्हारा घर क्यों नहीं जला। इस पर कुम्हारन ने जवाब दिया कि यह देवी शीतला माता की कृपा है, जो मेरा घर नहीं जला।
उसके बाद कुम्हारन ने अपने व्रत के बारे में गाँव वालों को विस्तार से बताया। इस खबर की चर्चा सारे राज्य में आग की तरह फ़ैल गई। जब राज्य के राजा ने यह खबर सुनी तो राजा ने यह घोषणा कराई कि आज से राज्य में सभी शीतला माता के लिए इस दिन व्रत करेंगे और देवी को बसोडा (बासी भोजन का) भोग लगाएंगे। उसी दिन से इस दिन शीतला माता के लिए व्रत और दर्शन पूजन करने का प्रचलन शुरू हुआ।
एक दिन पहले बने भोजन को बसोडा कहा जाता है। जिसे प्रसाद के रुप में देवी को अर्पित किया जाता है। शीतला माता के व्रत के दिन देवी को अनेक प्रकार के पकवान बनाये जाते है। पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ देवी का पूजन किया जाता है। आज भी यह पर्व बहुत प्रसन्नता के साथ मनाया जाता है। इस दिन आज भी रसोईघर में अग्नि नहीं जलाते है। शीतला माता का पूजन करने के लिए जिस जल का प्रयोग किया जाता है। उस जल को पूजा के बाद परिवार के सभी सदस्य आंखों में लगाते है। इस मौसम में आँखों का खास ध्यान रखा जाता है। माता की पूजा के बाद देवी को हल्दी का तिलक लगाया जाता है। मुख्य द्वारा और घर के बार दोनों और हल्दी से स्वास्तिक का चिन्ह भी बनाया जाता है। हल्दी का रंग भी प्रसन्नता और सकारात्मकता देता है। हल्दी से घर का वास्तु दोष भी कम होता है।
शीतला अष्टमी तिथि पर जयपुर में एक खास पूजा
जयपुर के एक छोटे से गांव में शीतला अष्टमी पर्व को लेकर विशेष आस्था विराजमान है। इस गांव में एक पहाड़ी के छोटे-छोटे पत्थरों को देवी शीतला का स्वरुप माना जाता है। इस पहाड़ी से लोग पत्थरों को उठाकर अपने घर भी लेकर जाते है, और वहां भी इनका दर्शन पूजन करते है। विशेष बात यह ही कि इन पत्थरों को विश्वास और आस्था के साथ पूजा जाता है। इस गांव में देवी शीतला का एक मंदिर भी बना हुआ है। यह मंदिर भी लगभग 5 हजार साल पुराना होगा। मंदिर को लेकर एक प्राचीन मान्यता है कि इस मंदिर में दर्शन -पूजन, सिर झुकाने से संक्रमण से फैलने वाले सभी रोगों से मुक्ति मिलती है। इस मंदिर की बहुत मान्यता है, जिसके कारण इस मंदिर में दर्शन पूजन करने लोग बहुत दूर दूर से आते है। वैसे तो भक्त साल भर इस मंदिर में आते रहते है, परन्तु शीतला अष्टमी पर्व पर इस मंदिर में आने जाने वालों का ताँता लगा रहता है।