भैया दूज पर बहनें करती हैं भाई की लंबी उम्र की कामना, जानें तिलक करने का शुभ मुहूर्त
By: Future Point | 01-Nov-2021
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भैया दूज पर्व को भाई टीका, यम द्वितीया, भ्रातृ द्वितीया आदि नामों से मनाया जाता है। हिन्दू पंचांग के अनुसार यह त्योहार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को मनाया जाता है। भाई-बहन के प्रेम, स्नेह का प्रतीक भैया दूज दिवाली के जगमगाते पर्व के दो दिन बाद मनाया जाता है। भारत में ‘रक्षा बंधन’ के अलावा यह दूसरा पर्व है जो भाई-बहन के स्नेह प्रतीक है। इस पर्व में बहनें अपने भाइयों की दीर्घ आयु की कामना करती हैं। कार्तिक मास की द्वितीय तिथि में मनाये जाने वाला यह पर्व इस वर्ष 06 नवंबर 2021 को है।
भैया दूज को ‘भ्रातृ द्वितीय’ भी कहा जाता है। अपने भाइयों के स्वास्थ्य और दीर्घायु के लिए बहनें पूजा-अर्चना करें। प्रातःकाल में स्नानादि से निवृत होकर बहनें अपने भाइयों को एक आसन पर बिठाएं। तत्पश्चात दीप से आरती उतारकर रोली एवं अक्षत से भाइयों का तिलक करें और उन्हें अपने हाथ से भोज कराये। ऐसा करने से भाई की आयु वृद्धि होती है और उनके जीवन के सभी कष्ट दूर होते हैं। इस दिन बहन के घर भोज करने का विशेष महत्व माना जाता है। आइये जानते हैं कि भाई दूज कब है, तिलक लगाने का मुहूर्त कब है और क्या है इसकी पूजा विधि।
भाईदूज पर्व का शुभ मुहूर्त -
भाईदूज का त्योहार 6 नंबर 2021 शनिवार को मनाया जाएगा।
भाई दूज तिलक का शुभ समय : 1 बजकर 10 मिनट 12 सेकंड से प्रारंभ होकर
03 बजकर 21 मिनट से 29 सेकंड तक रहेगा।
भाई दूज के अन्य शुभ मुहूर्त -
अभिजीत मुहूर्त- सुबह 11:19 से दोपहर 12:04 तक।
विजय मुहूर्त- दोपहर 01:32 से 02:17 तक।
अमृत काल मुहूर्त- दोपहर 02:26 से 03:51 तक।
गोधूलि मुहूर्त- शाम 05:03 से 05:27 तक।
सायाह्न संध्या मुहूर्त- शाम 05:14 से 06:32 तक।
पूजा की सामग्री :-
पाट, कुमकुम, सिंदूर, चंदन, चावल, कलावा, फल, फूल, मिठाई, सुपारी, कद्दू के फूल, बताशे, पान और काले चने आदि।
भाई दूज की पूजा :-
इस दिन बहनें अपने भाई को घर बुलाकर तिलक लगाकर उन्हें भोजन कराती हैं।
इस दिन बहनें प्रात: स्नान कर, अपने ईष्ट देव और विष्णु एवं गणेशजी का व्रत-पूजन करें।
फिर चावल के आटे से चौक तैयार करने के बाद इस चौक पर भाई को बैठाएं और उनके हाथों की पूजा करें।
फिर भाई की हथेली पर चावल का घोल लगाएं, उसके ऊपर थोड़ा सा सिन्दूर लगाकर कद्दू के फूल, सुपारी, मुद्रा आदि हाथों पर रखकर धीरे-धीरे हाथों पर पानी छोड़ें। फिर हाथों में कलवा बांधे।
कहीं-कहीं पर इस दिन बहनें अपने भाइयों के माथे पर तिलक लगाकर उनकी आरती उतारती हैं और फिर कलाइयों में कलावा बांधती हैं। इसके बाद माखन-मिश्री से भाई का मुंह मीठा करें। फिर भोजन कराएं।
कलावा बांधने के बाद अब शुभ मुहूर्त में तिलक लगाएं और आरती उतारें। उपरोक्त सभी सामग्री से भाई की पूजा करें और फिर आरती उतारें।
तिलक की रस्म के बाद बहनें भाई को भोजन कराएं और उसके बाद उसे पान खिलाएं। भाई दूज पर भाई को भोजन के बाद पान खिलाने का ज्यादा महत्व माना जाता है। मान्यता है कि पान भेंट करने से बहनों का सौभाग्य अखण्ड रहता है।
तिलक और आरती के बाद भाई अपनी बहनों को उपहार भेंट करें और सदैव उनकी रक्षा का वचन दें।
भाईदूज पर यम और यमुना की कथा सुनने का प्रचलन है।
अंत में संध्या के समय बहनें यमराज के नाम से चौमुख दीया जलाकर घर के बाहर दीये का मुख दक्षिण दिशा की ओर करके रखें।
भैया दूज की पौराणिक कथा -
भैया दूज के पर्व पर मृत्युदेव यमराज और उनकी बहन यमुना जी की पूजा विशेषरूप से की जाती है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान सूर्यदेव और उनकी पत्नी छाया से यमराज तथा यमुना का जन्म हुआ था। यमुना और यमराज में बहुत स्नेह था। मृत्युदेव यमदेव सदैव प्राण हरने में ही व्यस्त रहते है। उधर यमुना भाई यमराज को निरंतर अपने घर आने आने का निमंत्रण देती रहती थी। एक दिन कार्तिक शुक्ल की द्वितीय तिथि पर यमुना ने यमराज को अपने घर आने के लिए वचनबद्ध कर दिया। क्योंकि यमराज मृत्युदेव है इसलिए वे इस बात से भली भांति अवगत थे कि उन्हें कोई कभी भी अपने घर आने का निमंत्रण नहीं देगा और यमुना उतने स्नेह, सद्भावना से उन्हें बुला रही है। यमराज ने सोचा कि उन्हें अपनी बहन के प्रति यह धर्म निभाना ही है। यमराज को अपने घर आते देख यमुना अत्यंत प्रसन्न हुई। उन्होंने स्नानादि कर पूजन किया और भाई के समक्ष व्यंजन परोस दिए। यमुना के इस आतिथ्य सत्कार से प्रसन्न होकर यमराज ने अपनी बहन से वर मांगने के लिए कहा।
यमुना ने यमराज से कहा कि वह प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि में उनके घर आया करें। साथ ही उन्होंने यह कहा कि उनकी तरह कोई भी बहन इस दिन यदि अपने भाई का विधिपूर्वक तिलक करे, तो उसे यमराज यानि मृत्यु का भय न हो। यमराज ने मुस्कराते हुए तथास्तु कहा और यमुना को वरदान देकर यमलोक लौट आये। तब से लेकर आजतक हिन्दू धर्म में यह परंपरा चली आ रही है।